अज्ञेय की कविता में काम-1

काम की अवधारणा एवं अज्ञेय की कविता में इसका शिल्पन

अज्ञेय अज्ञेय की कविताओं के संकलन की भूमिका में डॉ० विद्यानिवास मिश्र ने बड़ा ही स्पष्ट संकेत दिया है- “अज्ञेय की कविता के तीन चरण दिखते हैं- पहला है विद्रोह और हताशा का, दूसरा है अपने भीतर शक्ति संचय का और तीसरा है बिना किसी आशा के आत्मदान में सार्थकता पाने का।”  इसी संचेतना की प्रेरणा काम, ध्यान और अध्यात्म की सीढ़ियाँ अज्ञेय में खोजने की जिज्ञासा पैदा करती है।

काम की अभिव्यक्ति को अपने काव्यों की आरंभिक वासंती गरिमा प्रदान करते हए अज्ञेय सृजन की उस ऊँचाई पर पहुँचे हैं जहाँ काम राम की प्रियता में प्रतिबिम्बित हो गया है। वासनामय उद्गार, प्रेरणामय प्रीति, आह्लादमय अनुराग और संवेदनमय सौंदर्य काम की झिलमिल आँख मिचौनी बन गए हैं।

“युग उसमें है पर व्यक्तित्व के माध्यम से, देश उसमें है, पर किसी आलोकित आकाश के माध्यम से। दर्प उसमें है ध्वंस या निर्माण का नहीं, अपनी किरण के दुलार का। बिम्बों का वैचित्र्य भी ऐसा है जो अपरिचित न होते हुए भी नये परिचय का रस देता है। वही दीप, वही मुकुर, वही कोकनद,वही सागर, वही लहर, वही नैवेद्य, वही आहुति अज्ञेय की कविता में नये प्राण पा जाते हैं। मैं अज्ञेय में नूतनता के अन्वेषण में नहीं बल्कि जीर्णता में भी पलाश के फूल की नयी दहक देखता हूँ।” —(विद्यानिवास मिश्र)

काम: अवधारणा

विचारणीय है कि क्या है काम? शास्त्रों में काम को भगवान ही कहा है। ’कामोस्मि भरतर्षभः। काम भी भगवान है। काम पुरुष भी है, पुरुषार्थ भी है। काम का धर्म, अर्थमय सम्पूर्ण भोग ही मोक्ष बनता है। मोक्ष के लिए काम की ड्योढ़ी लाँघना आवश्यक है।

’काम’ शब्द का मूल ’कम’ है। ’कम’ का अर्थ होता है सुन्दरता। ’कम’ का अर्थ होता है जल। अनुराग, प्रेम। यही काम विश्वविजयिनी शक्ति का संचारक है। काम की पताका का चिह्न मत्स्य है। मत्स्य जलजीव है। काम की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति जल रेतस में होती है। रेतस् वीर्य का पर्याय है। रेतस् शब्द ही ’रिंगतौ’ सूत्र से सम्पन्न है अर्थात बूँद या टपकना। रस भी जल का पर्याय है। कामदेव को जीवन की रसमयता का प्रतीक कहा गया है। सम्पूर्ण रस सौन्दर्य पानी का प्रकाश है। काम जीवन को रसमय, पानीवाला या पानीदार बनाता है। -(डॉ० युगेश्वर)

’अज्ञेय’ कितने धीरे से किन्तु कितने आश्वस्त भाव से इस काम की साँकल खटखटा आये हैं-

“मेरी थकी हुई आँखों को
किसी ओर तो ज्योति दिखा दो-
कुज्झटिका के किसी रन्ध्र से
ही लघुरूप किरण चमका दो,
अनचीती ही रहे बाँसुरी
साँस फूँक दो, चाहे उन्मन –
मेरे सूखे प्राण-दीप में
एक बूँद तो रस बरसा दो।”

—–क्रमशः

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