अज्ञेय की कविता में काम – 6

अज्ञेयक्षणवादी अज्ञेय

अज्ञेय क्षणवादी हैं। क्षण के भीतर प्रवहमान व्याप्त सम्पूर्णता के भोक्ता हैं। क्षण की सम्पूर्णता में व्याप्त मानव की अनारोपित समग्रता स्वाभाविकता अज्ञेय के कवि का इष्ट है और इस रूप में वे नए बोध के संवाहक हैं। सौंदर्यानुभूति का प्रेमपूर्ण क्षण कवि की आत्मोपलब्धि है-

“और सब पराया है
बस इतना क्षण अपना
तुम्हारी पलकों का कँपना।”

उनका कवि मन के उदात्तीकरण की बात सोच सकता, वह भी प्रेम के शरीर रूप को स्वीकार करते हुए, और मन के विजय के किसी अहं को बिना पाले वह कहता है-

“जहाँ पर मन
नहीं रहे यज्ञ का दुर्दान्त घोड़ा
जिसे लौटा तुझे दे
मैं समर्थ जभी कहाऊँ।

वासना के प्रति उसकी स्थिति यही है-

“मैं दम साधे रहा
मन में अलक्षित
आँधी मचती रही

प्रातः बस इतनी कि मेरी बात
सारी रात
उघड़ कर वासना का
रूप लेने से बचती रही।”

प्यार के प्रति उनका असीम विश्वास है, सकारण-

“क्या कहीं प्यार से इतर
ठौर है कोई
जो इतना दर्द सँभालेगा?
पर मैं कहता हूँ
अरे आज पा गया प्यार मैं वैसा
दर्द नहीं अब मुझको सालेगा।”  (अरी ओ करुणा प्रभामय)

अज्ञेय ने युगों-युगों की संचित प्रेम-कामना को एक क्षण में घनीभूत कर दिया है। यह शिखा प्रेम की शिखा है, वासना की नहीं, यद्यपि जलाती यह भी उसी प्रकार है जिस प्रकार वासना जलाती है-

“और तब संकल्प मेरा
द्रवित. आहत,
स्नेह-सा उत्सृष्ट होता है
शिखा के प्रति
धीर संशयहीन, चिन्तातीत।
वह चाहे जला डाले।
(यद्यपि वह तो वासना का धर्म है-
और यह नन्हीं शिखा तो
अनकहा मेरे हृदय का प्यार है।)”

प्रेमानुभूति के क्षण की प्रकृति को अभिव्यक्त करते हुए कवि कहता है कि यह एक प्राकृतिक अनुभूति है और अनिवार्यतः आनन्दमयी है। इसे किसी भी रूप में पाप नहीं कहा जा सकता है। हाँ, इसके सहज मार्ग को रोकना ही पाप है, शाप है। कवि दुनिया की इस राह में प्रेम और वासना के प्रत्येक क्षण का उपभोग कर आगे बढ़ जाना चाहता है-

“प्रकृत है अनुभूति, वह रसदायिनी निष्पाप भी है
मार्ग उसका रोकना ही पाप भी है, शाप भी है
मिलन हो मुख चूम लें, आयी विदा, लें राह अपनी-
मैं न पूछूँ, तुम न जानो, क्या रहा अंजाम मेरा।”

आलिंगन का एक क्षण उसे ऐसा लगता है, मानो उसने सम्पूर्ण सृष्टि को एक क्षण के लिए अपनी भुजाओं में बाँध लिया हो-

“सृष्टि भर को एक क्षण भर बाहुओं ने बांध घेरा।”

सुनहले शैवाल की ’निर्झर’ कविता में कवि ने प्रेमानुभूति में उठने वाले आन्तरिक कोलाहल का निर्झर के कोलाहल से तादात्म्य स्थापित करते हुए कहा है-

“आओ, इस अजस्र निर्झर के तट पर
प्रिय, क्षण भर हम नीरव
रहकर इसके स्वर में लय कर डालें
अपने प्राणों का यह अविरल रौरव।”

अज्ञेय की कविता में काम – 5

अहं और काम

अज्ञेय
अज्ञेय

निःसन्देह जहाँ कवि अहं को तिरोहित हो जाने देता है वहाँ काम की बड़ी ही उत्तम अनुभूतियों में मग्न होता है। ऐसे स्थलों पर वह विरह के आघात से अपने ’प्यार को दूना’ हुआ बताता है। वह प्रेम में ’चिर ऐक्य’ का विरोधी है। ऐसे स्थलों पर वह प्रेम के वासनात्मक नहीं साधनात्मक रूप की ओर अग्रसर होता है-

प्रेम में चिर ऐक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा
विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्यों जीता रहेगा!

और ऐसे अवसरों पर वह घोषित करता है कि ’जिन्हें प्रेम  अनुभव-रस का कटु प्याला है वे रोगी हैं’ अथवा जिनके लिए वह ’सम्मोहनकारी हाला है’ वे मुर्दे होंगे। कवि ने तो ’आहुति बनकर देखा है’ कि ’वह तो प्रेम-यज्ञ की ज्वाला है’।

यद्यपि अज्ञेय का अहं इतना सबल और इतना अत्याज्य है कि वे प्रेम के साधनात्मक रूप में अपने को बहुत अधिक तन्मय नहीं कर पाते और नारी को भिन्न रूप में पाने की अभिलाषा प्रकट करते हैं। उनकी बौद्धिकता भी इस प्रकार की अभिव्यंजना को प्रभावित करती है। उनका क्षणवाद भी- “खग-युगल करो सम्पन्न प्रणय क्षण के जीवन में हो तन्मय” उनकी इस प्रकार की भोग वृत्ति और प्रकृतिवादिता (Naturalism) को प्रश्रय देता है। वह याद को पराजय मानने लगते हैं-

भोर वेला नदी तट की घंटियों का नाद
चोट खाकर जग उठा सोया हुआ अवसाद
नहीं मुझको नहीं अपने दर्द का अभिमान
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद

उसके ग्रन्थि-जटिल मन में अनेक शंकायें उठने लगती हैं-

अब तक हम थे बन्धु
सैर को आये
और रहे बैठे तो
लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं
वह हम हों भी
तो यह हरी घास ही जाने।

अज्ञेय ने नारी के रूपांकन की अनेक रचनायें प्रस्तुत की हैं। रूपांकन में उन्होंने पारम्परिक उपमानों को तो छोड़ दिया है, छायावादी प्रतीकों और उपमानों को भी पीछे छोड़ने की कोशिश की है। इन समस्त वर्णनों में उनकी मूल भावना शारीरिक आकर्षण की है। ’कलगी बाजरे की’ शीर्षक रचना में वे कहते हैं कि ’अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका’ या ’शरद के भोर की नीहार न्हायी कुई’ या ’टटकी कली चम्पे की’ नहीं कहता तो केवल इसलिए कि ’ये उपमान मैले हो गए हैं’ तथा ’इन प्रतीकों के देवता कूच कर गए हैं’। और इस दृष्टिकोण के अनुरूप नव्यतर और सहज उपमानों के माध्यम से नारी के उस रूप को व्यक्त किया है जिसके प्रति वह निवेदित, समर्पित और कभी-कभी उन्मथित है-

अगर मैं यह कहूँ
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की
या शरद के साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी अकेली
बाजरे की
और जब जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संस्कृति का घना हो सिमट आता है
और मैं एकांत होता हूँ
समर्पित। (हरी घास पर क्षण भर)

नख-शिख रीतिशास्त्र का बड़ा प्रसिद्ध शब्द है। उस रीतियुगीन नख-शिख के अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक अंग का उपमान स्थिर हो चुका था। अज्ञेय ने ’नख-शिख’ नामक अपनी कविता में रूढ़ उपमानों को यदि कहीं लिया भी है तो संदर्भ (Context) और सम्बन्ध (Association) बदल दिया है-

तुम्हारी देह
मुझको कनक-चम्पे की कली है
दूर से ही
स्मरण में भी गंध देती है
(रूप स्पर्शातीत वह जिसकी लुनाई कुहासे-सी चेतना को मोह ले)
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस बूँदें हैं
अछूती ज्योतिर्मय
भीतर द्रवित
(मानो विधाता के हृदय में जग गई हो भाप करुणा की)
तुम्हारे होंठ
पर उस दहकते दाड़िम पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं
(सह सकूँ मैं ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है।) -(बावरा अहेरी)

अज्ञेय की कविता में काम-4

agyey
अज्ञेय

प्रेम की उत्पत्ति का कारण रूप है और सौन्दर्य की तीव्रानुभूति जब प्रेम को जन्म देती है तो व्यक्ति उसमें अपने आपको भूल जाता है। जब तक व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर सचेत जीवन जीता है, आत्मस्थ नहीं होता। उसके जीवन का कोई भी क्षण पूरी तरह अपना नहीं होता परन्तु किसी विशिष्ट मुद्रा में अपने आपको एक क्षण के लिए खो देना ही मानो अपने आपको पा लेना है-आत्मोपलब्धि है। कवि किसी नवयौवना सुन्दरी को पलक काँपते देखता है और उसकी इस मुद्रा का क्षण उसको पूर्णतः आकर्षित करता है। सोचता है, नायिका अपने यौवन की कल्पनाओं में मस्त होकर लज्जा का अनुभव होने पर पलक कँपाती है। सौन्दर्यानुभूति का यही प्रेमपूर्ण क्षण कवि की आत्मोपलब्धि है-

और सब पराया है
बस इतना क्षण अपना
तुम्हारी पलकों का कँपना।

ऐसे समय कवि की अभिलाषा है कि वह सुन्दरी के स्वप्न में एक क्षण के लिए स्थान पा सके-

है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना।

काम एक ईश्वरीय शक्ति-

अज्ञेय ने ’काम’ को ईश्वरीय शक्ति माना है। यही सबसे रहस्यपूर्ण शक्ति है। यही सबसे ’मिस्टीरियस फोर्स’ – Mysterious Force है। उनका निदर्शन है- डरो मत, भयभीत न हो। जीवन के किसी भी अनुभव से कभी भयभीत मत होना। जीवन के सब रंग भोगो, जीवन के सब ढंग जीओ। जीवन के सारे आयाम तुम्हारे परिचित होने चाहिए-

सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार
खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार।  –(मुक्त है आकाश)

अज्ञेय का मन्तव्य है कि आज मनुष्य की संवेदनायें बदल गयी हैं। वह विचारों के अन्तर्द्वन्द्वों से विशेषतः यौन वर्जनाओं से ग्रस्त है- “आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन व्यंजनाओं का पुंज है। उसके जीवन का एक पक्ष है उसकी सामाजिक रुढ़ि की लम्बी परम्परा जो परिस्थितियों के साथ-साथ विकसित नहीं हुई, और दूसरा पक्ष है स्थिति परिवर्तन की असाधारण तीव्र गति जिसके साथ रूढ़ि का विकास असम्भव है। इस विपर्याय का परिणाम है कि आज के मानव का मन यौन-परिकल्पनाओं से लदा हुआ है और ये कल्पनायें सब दमित और कुण्ठित हैं। उसकी सौन्दर्य चेतना भी इससे आक्रान्त है। उसके उपमान सब यौन प्रतीकार्थ रखते हैं।”

अतः अपनी अभिव्यक्ति के लिए अज्ञेय ने यौन प्रतीकों का प्रचुरता से प्रयोग किया है। सावन के मेघ का वर्णन इसी प्रकार के प्रयोग से युक्त है-

घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले,
भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा
विशद, श्वाँसाहत, चिरातुर
छा गया इन्द्र का नील वक्ष-
वज्र-सा, यदि तड़ित से झुलसा हुआ-सा।

भूमि नायिका को निर्लज्ज और नंगी रूप में चित्रित किया जाता है तब तो, मानो युग की सारी यौन कुंठायें साकार हो उठती हैं-

स्नेह से आलिप्त
बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल,
बद्ध-
वासना के पंक-सी फैली हुई थी
धारयित्री सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी
औ’ समर्पित!

वर्ग-भावना की विषमता का वर्णन भी कवि ने यौन-प्रतीकों से किया है-

हम लोगों का एकमात्र श्रम है- सुरति श्रम
इस अन्त्यज का एकमात्र सुख है – मैथुन सुख।

देह का आकर्षण कम सम्मोहक थोड़े हीहै। अज्ञेय ने सुनहले शैवाल में एक कविता संकलित की है-’देह वल्ली’। उसमे रूप नाम-हीन को ’आँखों में समेट लो’- यह पुकार है-

देह-
वल्ली।
रूप को
एक बार बेझिझक देख लो।
पिंजरा है? पर मन इसी में से उपजा।
जिस की उन्नीत शक्ति आत्मा है।
देखो देह-
वल्ली।

अज्ञेय का प्रेम वासना मिश्रित है इसमें उनका विश्वास है। यह दूसरी बात है कि कभीं-कभीं वह इस मनःस्थिति में हों कि कहें-

बाहु मेरे घेर कर तुमको रुके रहे
दो लताओं के प्रलम्बित अंकुरों से
प्राण दोनों के बस झुके रहे
सहज अनुरागी
नहीं मुझमें अहं की अभिव्यंजना जागी। (इत्यलम्)

क्रमशः–