मेरे बारे में

मैं हिमांशु हूँ । हमेशा हँसना मेरी आदत है, स्वभाव कह लीजिये । आपने मेरा नाम देखा न ! हिमांशु, मतलब चन्द्रमा । चन्द्रमा हँसता है सदा मीठी सी हँसी – मधुहास । मैं भी मधुहास लेकर उपस्थित हूँ ।

अपनी कस्बाई जिन्दगी में रोज निखरता है यह चिन्तनशील मन । आँखे मुचमुचाते गौरेया के बच्चे की तरह चहचहाता निकलता हूँ अपने स्व के खोल से । निरखता हूँ संसार, जो दिखता है वह भी और जो नहीं दिखता है उसकी दृश्य चाह भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करने को प्रेरित करती है । इसलिये अपना कुछ भी नहीं पर संसार का ही सब लेकर इतराता हूँ, लिखता जाता हूँ ।

सच्चा शरणम नाम का एक चिट्ठा लिखता हूँ पहले से ही । अभी कुछ और डूबो मन की टेक लेकर । डूबता उतराता हूँ, लिखता जाता हूँ । कवितायें बहुत पहले लिख दी जाती रहीं अनायास इसलिये कभीं इन्हें प्रयत्न नहीं कहा । पर जब चिट्ठाकारी में कुछ भी लिख दो कविता होगी की चेतना व्याप्त देखी तो ऐसा ही नया प्रयत्न करने भी निकल पड़ा, यद्यपि सफल नहीं हुआ । संसार को अखिलं मधुरम मान कर मुग्ध होता रहा और उसकी अभिव्यक्ति करती अपने पिता की रचनाधर्मिता से चमत्कृत, इसलिये अखिलं मधुरम में पिता जी की रचनायें देता रहा । अभीं तो आँखें नहीं भरीं ।

उस अदृष्ट और अबूझ  की कारगुजारी सदा समझने की कोशिश करता हूँ, और उससे दोहराता रहता हूँ –

“एक बार और जाल फेंक रे मछेरे / जाने किस मछली में बंधन की चाह हो ? “

यहाँ जो कुछ भी है प्रकारान्तर है ।